Monday, December 21, 2009

" एक तर्जुमा मेरा भी "


लखनऊ की
तंग
गलियों से गुज़रते हुए
दो शोहदों को
अदब
से लड़ते देखा जब
तो उनकी इस तकरार पर
प्यार आ गया।



उनका तर्जुमा
कितना
सच्चा
रवाँ
रवाँ सा था
वरना
इस जहाँ में
सच तो सिर्फ़ एक लफ्ज़ है
और झूठ कारोबार,
एक खोखली बुनियाद के साथ।



शायद !
इसी वजह से हर साल...
इमारते ढह जया करती है ईंटो की ...
और रिश्तो की भी.....
अजीब है! दोनो सूरतों में
आँखें ही नम होती है
दिल नही




"प्रिया चित्रांशी "

चित्र : गूगल से

Friday, November 27, 2009

रास्ता और वो

सोचा था .....खुद को दूर रखेगे ब्लॉग से....नहीं लिखेंगे कोई रचना ....ब्लॉग्गिंग से दूसरे जरूरी कार्यों पर असर होता है .....पर कविता कहाँ दूर रहती है आपसे ... वो तो हर पल साथ होती है कभी जिंदगी, कभी साया, कभी तजुर्बा तो कभी हमसफ़र बनकर .....नहीं रख पाए हम खुद को कविता से दूर.... इसलिए हाज़िर हैं एक बार फिर आप सबके बीच अपनी जिंदगी के सिर्फ तीस मिनट लेकर.......हम उम्मीद करते हैकि हमारी जिंदगी का ये आधा घंटा रास आएगा आपको :-)






सर्दियों में न शब् जल्दी आ जाया करती है
ऑफिस से घर लौटते वक़्त अँधेरा हो जाता है
सड़क पर चारो तरफ भीड़ ...
ट्रैफिक का शोर....
तकरीबन तीस मिनट लगते है रास्ता तय करने में......



कोई है ! जो मेरा हमसफ़र बनता है इस बीच
कल देखा था आसमां पर
जब पीले- पीले बदन पर
लाल साफा बाँध कर आया था
बस! देखा किये उसे हम।



रास्ते भर लुका-छिपी चली हमारी
बैरी इमारते बीच में आ जाती हैं हमारे
रोज़ घर तक पहुंचा जाता है हमको
फिर हम मुस्कुरा कर जुदा होते हैं एक दूजे से।



जीवन की उहा-पोह में...
हमनवां के साथ गुज़रे वो तीस मिनट
कुछ अरमां, कुछ सपने दे जाते हैं
जो ऊर्जा बन पूरे दिन साथ रहते हैं
और फिर
नज़्म बन कागज़ पर छा जाते हैं।



सुनो चाँद! कल न.....
काला टीका लगा कर आना
सरेआम तुझसे मोहब्बत का इकरार किया है हमने
डर है ज़माने की नज़र न लग जाये॥




"प्रिया चित्रांशी "



Wednesday, November 11, 2009

"और पत्ता हरा हो गया"






" तू तसव्वुर में नहीं था लेकिन ,
सूखे पत्ते पे तेरा चेहरा दिखाई देता है
हैरानगी और भी बढ़ जाती है ...
जब वो पत्ता हरा दिखाई देता है। "






Sunday, November 1, 2009

बूँद





(एक साहित्यिक वेबसाइट पर पूर्व प्रकाशित इस कविता का प्रकाशन आज हम अपने ब्लॉग पर कर रहे है आप सभी का शुक्रिया जो हमेशा अपनी अमूल्य राय से हमारा मार्गदर्शन करते है और उत्साहवर्धन भी हमको इस बात का दुःख भी है कि हम आप सभी के ब्लॉग पर आकर अपनी प्रतिक्रिया नही दे पाते......फ़िर भी आप हमें अपना प्यार - आर्शीवाद देते है और सुझाव भी उम्मीद है कि ये रिश्ता यूँ ही बना रहेगा ....... )







अंजाम से बेखबर बूँद जब आसमां से चलती है
कभी ज़मी उसकी राह तकती है,
तो कभी सीप उसके आने से डरती है,
फ़ना होना तो उसका मुक्कदर है,
फिर भी जिंदगी से प्यार करती है।



गिरी एक पत्ते पे तो शबनम बनी,
शायर की नज़र पड़ी तो ग़ज़ल बनी,
सूरज ने जो रोशनी से जलाना चाहा
बन तारे उसने धरा को सजाना चाहा।



नन्ही सी उम्र में सूरज को चुनौती दे दी,
जाते-जाते जहाँ को निशानी दे दी,
समंदर के पानी में मोती बन वो रहती है,
किसी के आँखों में दरिया बन वो बहती है।



कलियाँ ओस चख चटक जाती है,
तितलियाँ रस पी जवां हो जाती है,
पेड़ नई कोंपले रख नहाने को तैयार है,
बादल फिर धरा को भिगोने को बेताब है।



बूँद पलकों पे आंसू सजा बाबुल से जुदा होगी फिर,
सैया संग, उमंग ले भारी मन से विदा होगी फिर,
"धरा ससुराल" बहार संग स्वागत के लिए तैयार है,
एक नव-वधु का आज फिर दूसरे जहाँ में दीदार है ।


Sunday, October 25, 2009

लकीरें





लकीरों और तकदीरों में अजब मेल होता है
हमारे हाथो में भी मुकम्मल खेल होता है
एक पतली सी रेखा बदलती है जिंदगानी कर रुख
क्या कोई सच भी इतना संगीन होता है



अगर मै कहूं
मैंने लकीरों को बोलते देखा
तकदीरों को तौलते देखा
लोगों को हास-परिहास का मुद्दा मिल जायेगा
कुछ लोगो का वक़्त मुस्कुरा कर कट जायेगा



एक बार ह्रदय रेखा ने भाग्य रेखा पर कसीदा कसा
तेरे भरोसे कुछ को समंदर मिला
और कुछ को पीर का बवंडर मिला



भाग्य रेखा चुप रहे ऐसा मुमकिन था
उसने भी दिल की लकीर पर तंज कसा
तुमने भी तो अफरा- तफरी मचाई है
सदा हकीक़त से नज़रे चुराई है
मोहब्बत के खेल खेले हैं
जुदाई के दंश झेले हैं
भावो के समंदर दिखाए हैं
जज़्बातों के सैलाब आये हैं


तेरे ही कारण दिल हमेशा मात खाया है
अक्सर लोगो को हार्ट अटैक आया है



मस्तिष्क रेखा सुन चुप रह सकी
बात-चीत की महफ़िल में उसने शिरकत की
पहली बार उसने दिल का हाथ थामा
दिल के सारे व्यवहारों का कारण खुद को माना
वैज्ञानिक चुनातियों के तर्क दे डाले
दिल के सारे हाल दिमाग से कह डाले



जीवन रेखा ने सारे वक्तव्यों को ध्यान से सुना,
खामोश तंत्रा में ही एक जाल बुना
जीवन की घड़ी एकाएक थम गई,
कड़ियाँ रफ्ता-रफ्ता बिखर गई
अब कोई इल्जाम था
सामे
शाकी
सुखनवर था



जो मरा था वो कभी जिया ही नहीं
जीवन का रस उसने कभी पिया ही नहीं
मौत ने आकर मुन्सफी कर दी
अब मर कर जियेगा कुछ दिन,
कुछ रिश्तो में
ज़ुबानो में
यादों में


Friday, October 16, 2009

आओ जला ले एक लौ मोहब्बत की,

Hello friends!

It's not feasible to wish all of you on your blog. Thus I applied short cut . Hope you guys will understand my plight. I'm in hurry........ so chalte- chalte



"आओ जला ले एक लौ मोहब्बत की,
बिना मलतब का प्यारा रिश्ता बना ले कोई ,
नफरत, शिकवे, कड़वाहटे जल जाये शायद,
हादसे इस दिवाली टल जाये शायद "

See you Soon,

with warm regards,

Priya

Sunday, September 27, 2009

मुक्तक





१.


इस दिल ने जो भी चाहा वो कभी ये कह नहीं पाया,
परिणामो से इतना डरा कि ये जोखिम ले नहीं पाया,
कमी खलती है जीवन में उन हसरतों की मुझको
जो बीजो में तो है लेकिन अंकुरित हो नहीं पाया॥

२.



बसंती रूप-रंग धर कर फिजा मेरे घर आई थी,
मेरी चौखट पे आकर के जोर से आवाज़ लगाईं थी,
मै बहुत तेज से दौडी और फिर ठिठक सी गई
एक झोंके की बेवफाई अचानक याद आई थी॥

३.



तुम तो खेल रहे थे हमसे पर हम थे संजीदा से,
तुमको लेकर देख रहे थे सपने कुछ पसंदीदा से,
पलकों के घूंघट तक तो सपना था बहुत सुहाना सा,
सिन्दूरी सुबह के आते तुमको जाने का मिला बहाना सा॥

४ .


शिकायत नहीं है मुझको तुमसे तकदीर ही मुझसे रूठी है,
अब तो ख्वाबो, ख्यालों की दुनिया लगती मुझको झूठी है,
जानते हैं यहाँ सब कि सपनो से मेरी लडाई है,
सपनो से जुदाई मान भी लूं पर तेरा होना सच्चाई है॥

५ .


कदम न आगे बढे न पीछे हटे,
हम दोनों जहाँ थे वही पे रहे,
वक़्त चलता गया रुका ही नहीं,
अब तुम हो कहीं और हम है कहीं ॥

६ .


मन में जो अमिट कहानी थी, तुमने वो कब जानी थी,
ह्रदय में अनकही गाथाये थी लबो पे उतर न पाई थी,
गुरुरे मद में चूर मेरा झूठ तो देखिये साहेब,
कहीं मै रो न दू इस वास्ते तेरे जाने की महफ़िल सजायी थी॥

७ .



हवाओं सुना ज़रा ठहरो मेरी ताल से ताल मिलाओं,
दरियाओं के संगम को साहिल पे ला के दिखलाओ,
क्यों न नाज़ हो खुद पर सुनो ए आसमां वालो,
बिना छल के समंदर मथ हलाहल पी के दिखलाओ॥

८ .



इन किताबों से मुझे दोस्ती करने दो,
जुनू शायरियों का कुछ कम ही रहने दो,
ठाहको के बाज़ारों में ये बेमोल बिकती हैं
पर सच है इन्ही के कारण महफिले सजती हैं॥


९ .


"नहीं है वादा कोई के हमेशा साथ निभाएगे,
कारण- अकारण बस यू ही मिलते जायेगे,
कभी दुश्वारिया पता चले तो बस इतना करेगे,
तेरे नाम की दुआ पढ़ उससे फरियाद करेंगे॥ "


१० .




ये मत सोचना के तुम मेरे लिए कुछ खास हो,
रुपहले सपनो का तुम एक आभास हो,
रंगों को मेरे जीवन में सजाया था कभी तुमने
रंग धुल गए है अब मै खुश हूँ तुम आबाद हो॥


Sunday, September 6, 2009

बस थोडा सा आर्शीवाद चाहिए

(स्टुडेंट लाइफ - कहते है कि जिंदगी का सबसे खूबसूरत सफ़र होता है .... अब वो तो रहा नहीं सिर्फ यादें है ....एक पुरानी कविता प्रस्तुत कर रही हूँ शिक्षक दिवस के अवसर पर .....मेरी दो टीचर्स जो उस समय मेरी आदर्श हुआ करती थी ...खासा लगाव था उनसे ... सरोज दुबे मैम और नीलिमा श्रीवास्तव ..... फेरवेल में जब ये कविता पढ़ी तो टीचर्स का असीम प्रेम मिला ......मेरी जिंदगी का खूबसूरत पल था वो .....तो आइये मेरे साथ शामिल हो जाइए अपने स्टुडेंट लाइफ के दिनों में ....और जी लेते है वो लम्हा एक बार फिर )




कुछ नहीं मांगते है गुरुवर आपसे
हो सके तो बस इतना एहसान कीजिये
पाया बहुत ज्ञान हमने आपसे
अब आप थोडा आर्शीवाद दीजिए



सताया बहुत हमने आपको
बच्चा समझकर माफ़ कर दीजिए
याद आता है वो समय हमको आज
जब कक्षा में आपने हमें दण्डित किया था



उस समय तो क्रोध ने हमें घायल किया था
पर आज प्रेम ने हमें पागल किया है
सोचते है जब हम यहाँ से चले जायेंगे
कही आप हमको भुला तो न देंगे



भुला भी दिया अगर आपने हमको
तो स्वप्नों में हम पढने आते रहेंगे
कैसे करेंगे भावना पे काबू
जब इस कॉलेज को छोड़ कर चले जायेंगे



अश्रु भी चक्षु से जो झलक गए अगर
हमारे लिए वो भी काफी न होंगे
सिखाया बहुत कुछ आपने हमको
एक बात और हमको सिखा दीजिए



आपको देखे बिना नेत्र रहेंगे अधूरे
हमारे नैनों को बस आप मना लीजिये
मिलेंगे भविष्य में बहुत गुरूवर हमको
आपसा मिल गया तो चमत्कार होगा



मिल भी गया तो सच कहते है हम
आपकी स्मृति सदैव ताज़ा रखेंगे




Thursday, August 27, 2009

उसको देखा तो

(आप सबको नमस्कार, प्यार, सलाम ! साथ ही शुक्रिया... जो आपने हमें प्रोत्साहित किया और ढेर सारा प्यार दिया...उम्मीद है कि आप हमेशा ही अपने बहुमूल्य विचारो से मुझे अवगत कराते रहेंगे और साथ ही अपना स्नेह यूहीं बनाए रखेंगे। )


वो जीना चढ़ रहा था
सर पर ईंटो की छाव लिए
सीढियां थोडी ज्यादा थी
चढ़ता जा रहा था बिना कोई पड़ाव लिए
माथे का पसीना छलक कर
ठुड्डी तक गया था
ठुड्डी पर ठहरी वो बूँद
कोहिनूर सी लगी मुझे
जब वो टपक कर उसकी बेटी पर जा गिरी थी
बिटिया ने देखा ऊपर
मुस्कुरा कर पूँछ ही लिया



बाबा , " खाना खाने कब आओगे ?
अब छलक रहा था वात्सल्य आँखों में मोती बनकर,
ममता बरस पड़ी थी एक सीधे - सादे प्रश्न पर,
सूरज की चांदनी में स्याह पड़ा वो धुआं सा चेहरा ,
एक मासूम सी हँसी हँसा,
पाँव आगे बढा कर खनकती आवाज से बोला,
तू खेल पर कहीं दूर मत जइयो .....
जा जाकर मदद कर दे अम्मा की
अच्छा सुन ! रहने दे थक जायेगी
छाँव में बैठ जाके
बस काम निपटा के आते हैं।



मैंने नभ को निहारा, फिर धरती को..
होंठो को दांतों में दबाकर, वीरान सी आँखों में ठंडक लिए
आप ही कुछ कह गई ....
चल मान गई तेरी खुदाई....


"शुक्र है शफ़क़त - -वालदैन से नवाजा है तूने
वरना तेरी दुनिया में रिश्तो का कारोबार भी तो है"




Thursday, August 6, 2009

"जिन्दगी के सुख चुराए जब "

(जीवन से कुछ पल निकाल फिर हाज़िर हुई हूँ आज। एक नई सोच के साथ.... सुना है कि ईश्वर के पास एक बहीखाता होता है ,जिसमें हमारे भूत, भविष्य और वर्तमान का लेखा- जोखा होता है, कब, क्या कहाँ, कैसे होगा ये सब पूर्व निर्धारित है..... सोचिये वो बहीखाता हाथ लग जाये तो... आप सब का तो नहीं जानती पर हम तो कुछ यूँ कर गुज़रे शायद .......)






मेरे खुदा बस इतना रहमत कर दे,
ज़िन्दगी की किताब की 'इंडेक्स' दे दे,



मै सिर्फ इतना करूंगा..
किताब के वर्क पढ़..
ख़ुशी, गम के पन्नो का नंबर
नोट कर लूँगा



जब कभी तुम थक जाना
मै अपनी मर्जी से वर्क पलट
एक हिस्सा जिन्दगी जी लूँगा



मेरा फ़रेब बस इतना होगा
जल्दी -जल्दी ख़ुशी के वर्क पढ़ ...
लम्हा - लम्हा वो वक़्त जी लूँगा



हाँ तुम्हारी प्लानिंग गड़बड़ होगी
नाराजगी भी जायज हो शायद ..
मुझे सजा सुना देना मौत की
गम के दिनों से तो मौत भली



सफाई में इतना कहना है मुझे



"तेरी लिखी पे मैंने ..
अपनी सोच डाल दी...
अपनी खुदी खुद पर निसार दी...
मैंने लिखी कुछ एक साथ जी ली...
जो अच्छी लगी जिन्दगी,
जाम जान फटाफट पी ली।



कुसूर इतना है मेरा
तूने फलसफे बनाए जिंदगी के
मैंने उसमें अपनी मर्जी से ...
आसानी ढूंढ ली.



मेरी जिंदगी की सहूलियत को
गुनाह जाना है तुमने ,
मुझे सजा देने का हकदार भी खुद को
माना है तुमने ,
संसार को तो नश्वर बनाया है तुमने ,
अचंभित हूँ ....और इसमें ही जीवन सजाया है तुमने




हे अजेय, अजन्मा, अरूपा, सर्व्सक्तिमान
मुझे तो बस इस शाश्वत सत्य को अपनाना है ,
तिनका - तिनका दुःख सहने से बेहतर तो ...
मौत को गले लगाना है ,
देखो इसमें तुमको भी आसानी होगी ,
प्रकृति का नियम भी कायम रहेगा ,
और मरने में बस थोडी मेरी मनमानी होगी




लगता है कन्विंस हो गए हो
या फिर मैं और बोलू .......


सोचने के लिए वक्त चाहिए तो ले लो,
पर निर्णय थोडा जल्दी और पक्ष में देना ..
पल भर का तनाव भी अच्छा नहीं लगता,
गम का कोई लम्हा सच्चा नहीं लगता ,
यू नो " सुख और खुशियों की आदत सी पड़ गई है मुझे "





Sunday, July 19, 2009

"दिलनशी कुमुदनिया"

आज काफी दिनों बाद आना हुआ ब्लॉग परआगे भी लंबे अन्तराल के बाद मुलाकात होगी। कुछ व्यस्तता अधिक रहेगी

बरसात का मौसम है प्रकृति से हमारा विशेष लगाव किसी से छुपा नही है ये अलग बात हैं कि बादल कुछ ख़फा-ख़फा से हैं ....लेकिन इस दौरान प्रकृति के ऐसे नज़ारे देखने को मिले कि कुमुदनी का हाल- -दिल लेखनी से फूट पड़ा आप लुत्फन्दोज होइए इनके साथ .... हम फिर हाज़िर होते हैं कुछ अरसे बाद






हरे- हरे पत्तो के दल,
उन पे बिखरी ओंस,
गुलाबी नाजुक प्रहरियाँ,
रही है डोल-डोल,
हाय रे! ये दिलनशी कुमुदनिया,
छेड़े है मन के तार,
अब कैसे कोई भंवरा,
बांधे मन की डोर


जल के बीच खिला- खिला यौवन छलक उठा ,
पवन का मन मचल उठा,
बेईमान! हौले से छू उठा,
पवन की छुअन एक सिरहन से फैला गई,
कुमुदनी इठला कर हवा संग हिलोर लगा गई







मधुकर ये दृश्य देखकर ठगा सा रह गया,
मंत्रमुग्ध हो, कुमुदनी के रूप- रंग पर खिंचा चला गया,
संध्या सुन्दरी भी दस्तक थी दे चुकी,
कुमुदनी भी सांझ के इशारे को समझ चुकी,
खिली-खिली पंखुडिया कुमुदनी ने समेट ली,
प्रेयसी के जाल में भंवरा था फंस चुका





पहले तो भंवरा बहुत घबराया,
कुमुदनी पे फ़िदा होकर पछताया,
फिर उसने कुमुदनी पर अपने प्रेम बाण छोड़े,
सारे ग्रंथो के सार निचोड़े,
कोमल ह्रदय कुमुदनी, तुंरत ही पसीज गई,
भंवरे के कैद मुक्ति का उपाय सोच गई


नाजुक सी कोमल पंखुरिया...
भँवरे ने भेद दी,
खुद को आहत करा कर...
कुमुदनी ने वफ़ा की मिसाल दी,
कैद मुक्त होकर भंवरा तो उड़ चला ,
लेकिन कुमुदनी पर प्यार का रंग चढ़ चला




प्रभात फिर हुआ,
रश्मि फिर पड़ी,
प्रकृति नियम जान कर,
कुमुदनी खिल उठी,
पंखुरियों पे उसके कल का वो चित्र था.
हर एक दल पर भँवरे का दिया छिद्र था.


लोगों ने कहा की खूबसूरती पे दाग था,
लेकिन वो थी खुश बहुत,
क्योकि उसका मन साफ़ था।




Monday, July 6, 2009

"आदमी का प्राइवेटाईजेसन"





जीवन की आपा-धापी में दौड़ता आदमी,
लक्ष्य पर लक्ष्य साधता आदमी,
सफलता पे सफलता चढ़ता आदमी,


पर्वतों से ऊँचे ख्वाब बनाता आदमी,
आसमाँ में सुराग करने को बेचैन आदमी,
पर ईमान से महरूम आदमी,


दुनिया की भीड़ को चीर कर आगे बढ़ता आदमी,
एक आदमी तो शिकस्त देता दूसरा आदमी,
एहसानों का एहसास करवाता आदमी


पैसो के ढेर पर बैठा आदमी,
सम्मानित आदमी, सफल आदमी,
सबकुछ पाने की चाह में खुद को खोता आदमी,
पर शांति के लिए तरसता आदमी,


किसी ने पूछा ------
क्या पाना चाहते हो?
कहाँ जाना चाहते हो?
ज्यादा पाओगे तो कहा जाओगे?
अल्लाह के द्वार पर इंसान कहलाओगे,
फ़रिश्ता नहीं बन जाओगे..


खुद के लिए जिया आदमी,
खुद को सजाता आदमी,
खुद पर लुटाता आदमी ,
"प्राइवेट आदमी " बिल्कुल प्राइवेट


एक दिन अचानक दिवंगत हो गया,
एक बेटा था, "प्राइवेट"
शोक मनाया 'प्राइवेट'
अंतिम संस्कार की बारी आई,
प्राइवेट बेटे ने पब्लिक बुलाई


पब्लिक से एक सज्जन बाहर आये,
बोले, हम क्विक एंड फास्ट सर्विस प्रोवाइडर हैं,
बस पंद्रह मिनेट में फ्युनेरल हो जायेगा,
और फ्युनेरल सर्टिफिकेट आपको मेल कर दिया जायेगा


बेटा क्विक डिसिजन मेकर था,
डिसीजन लिया, कांट्रेक्ट दिया,
फ्युनेरल प्राइवेट लिमिटेड को फेम मिला,


कुछ लोग जो पके आम थे,
एस.एम.एस. ई-मेल, फैक्स का सहारा लिया,
अग्रिम बुकिंग का निवेदन किया


फ्युनेरल प्राइवेट लिमिटेड के बोर्ड पर एक वाक्य और जुड़ गया,
प्रिवीयस बुकिंग इस अल्सो अवेलेबल,
अल्लाह हैरान था,
होमोसेपियांस के लिया परेशान था,


कुदरती वैज्ञानिक मैनुफ़ैक्चरिंग डेफेक्ट ढूँढ रहे थे,
ज़मीनी आदमी मुस्कुराता रहा .....



Monday, June 29, 2009

"पहली बारिश"





आज पहली बारिश ने मदहोश कर दिया,
तपती रूह को तर कर सराबोर कर दिया ,
एक झोंका हौले से छूकर चुनर लहरा गया ,
फिज़ा ने कान से टकरा कर एक मद्धम गीत गा दिया।



एक लट रुखसारों को छूती हुई ...
कान की बाली से उलझ गई,
मौका देख एक बूँद गाल को चूम गई,
बूँद की बेहयाई ....
हया बन आँखों में उतर गई।




नज़र उठा जब आस-पास देखा ..
झूमते पत्ते, इठलाती तितलियाँ ...
इन्द्रधनुषी रंग , नाचते पंछी, लम्बी राहे...
ताक- ताक मुस्कुरा रहें थे ,
हम दीवाने से बरसात के रंग में रंगे जा रहे थे।




मन बांवरा मदहोश हो गया,
इन धडकनों पर इसका जोर हो गया ।


सुन मौसम ! बदल दे मिजाज अपना जल्दी
घबरा रहे हैं हम कि कहीं
" हमहें तुझसे मोहब्बत न हो जाए "





Friday, June 26, 2009

"मन की गिरह"


( डॉ श्याम गुप्ता जी के सुझावों पर अमल करते हुए कविता में कुछ परिवर्तन किया है, उम्मीद है की आप इसे पसंद करेगे)


जी चाहता है मन की गिरह खोल दें ,
जो कुछ अंदर छुपा हैं सब बोल
दें ,
ज़माने के फेर में हम पड़ गए थे ,
उलझी सी दुनिया में उलझ से गए थे।




कोशिश की हवा के साथ बहने की,
झूठी, मक्कार, बेईमान,सफ्फाक बनने की,
इस दिशा में सारी जुगत लगाई,
जो नहीं सीखी थी वो भी तरतीब भिड़ाई।





अफ़सोस! मेरी पहली तरकीब काम आई,
तकदीर हमें बेइज्जत कर वापस सही राह पर लाई,
हम अपनी हार का विश्लेषण कर गए,
और फिर पूरी लगन के साथ नए प्रयास में जुट गए





जब हालात की तासीर को चेहरे की तहरीर बनने दिया,
तभी नैनों ने सच्चाई का दामन पकड़ लिया,
नयना बिन बोले सब कह गए ,
हम तो अपने ही नैनों से छले गए।





फिर भी हार नहीं मानी हमने ...
सोचा अबकी बार गहरी चाल चलेंगे,
राजनीति,कूटनीति, दोहरे मानदंड अपनाएंगे,
इन भ्रष्ट और गंदे लोगो के बीच कुछ तो जगह बनायेंगे।





पर इस बार भी वही हुआ ...
शह देते - देते, ज़माने की चाल से मात खा गए ,
और एक जीर्ण - क्षीण मोहरे का शिकार हो गए



अब तो लगता नहीं कुदरत हमारा साथ देगी ,
भ्रष्ट बनने की हमारी हर कोशिश नाकाम होगी ,




हालात कितने भी दुश्वार क्यों हो,
हमारा हाल कितना भी बदहाल क्यों हो ,
नहीं लगता है कि बुराई से समझौता कर पायेंगे,
संस्कारी है भई हम तो , भ्रष्ट बन पायेगे




कुनितिवान, भ्रष्ट लोगों के मध्य संस्कारों की नींव डालेंगे ,
अपने आत्मबल, स्वावलम्ब और चरित्र को टटोलेंगे,
भरोसा है खुद पर के कीचड में कमल खिला सकते है,
हजार सही कम से कम एक विधोत्मा, गार्गी या ध्रुव तो बना सकते है।




चलिए इन्ही विचारो के साथ आगे बढ़ते है ,
आँगन में पुरखों के संस्कारो का बीज रखते है,
अब तो इन्ही पौध को रोज़ सींचना है ,
नई तकनीको और स्वस्थ मस्तिष्क के साथ रोपना है।




आर्यावर्त की धरा पर एक बार फिर कुंदन बरसेगा ,
जब यहाँ का हर युवा पाश्चात्य देशो में .......
भारतीयता का लोहा मनवाएगा ,
और पश्चिम भारतीय संस्कृति के रंग में रंग जायेगा।