Monday, October 11, 2010

स्रष्टि का निर्माण




कल पूर्णिमा थी
कलसे में भर ली चांदनी
आज सहर होते ही
आफताबी किरने भर ली
मटके में मैंने.


दरिया किनारे छुपा दिया मटका
कल रात जब
बादल चाँद को ढकेंगे
सिर्फ तारे आसमा से झाकेंगे
उनका बिम्ब दरिया के पानी पे बनेगा
तब तारो की परछाइयाँ बटोरूंगी
उस कलसे को हिफाज़त से सहेजूंगी .


ऐसा जाम किसी ने न बनाया होगा
खुदा को भी ये ख्याल ना आया होगा
लोग तो चाँद- तारे तोड़ने की बात करते है,
उनकी धरती से उनको छीनने की चाह रखते है
तेरे लिए ही तो मैं स्रष्टि बना रही हूँ
पञ्च तत्व बटोर कर ....
कुछ गहने पहना रही हूँ


मेरे हिस्से का आकाश इसमें समाया है
हवाओ के गेसुओ को इसमें पिरोया है
मेरी उर्जा की अग्नि का इसमें चूरन है
खिलखिलाहट से नम हुई आँखों का इसमें पानी है
मेरी सहनशक्ति धरती सी दीवानी है


मैंने जीते जी इन पञ्च तत्वों को तुमको भेट किया है
कहीं कोई दुनिया में ऐसी कहानी हो तो बताओ
ऐसा उपहार गर किसी ने किसी को भेट किया हो तो सुनाओ


तुम मुझे याद रखो
या के भूल जाओ
मैं न भूलूंगी
तुम्हे पूर्ण करने के लिए
मैंने क्या कुछ न किया .

प्रिया

15 comments:

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

poorn samarpan bhav liye ek achhi rachna
prashansniy

अनिल कान्त said...

वाह ....बहुत गहरे से कहा है

सागर said...

बड़े दिनों बाद कुछ अलग पढने को मिला... इन दिनों वैसे भी मार-काट वैसे भी कविताओं में बड़ी मची रहती है. सारे ख्याल उम्दा हैं... और अंतिम की शिकायत भी.. गोया कैसी भी मुहब्बत हो कभी खरोच छोड़ जाता है तो कभी टुकड़े... चुनांचे भंवर का लीलना ख़त्म नहीं होता

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

ek bahut he khoobsurat ehsaas se sazee aapki rachna!!

रश्मि प्रभा... said...

kahan chhupa diya matka, usme jo pani hai ... mujhe bhi chahiye ...
na sahi to yah rachna hi bhej do vatvriksh ke liye , kuch apni baat hi kah lungi

Vinay Kumar Vaidya said...

प्रियाजी,
अद्भुत !
दिल झूम उठा आपकी कवित पढ़कर ।
हाँ, अभी तत्त्वों के चित्र देखना बाकी है !
सादर,

Vandana Singh said...

hmmm....:)


bahut bahut sundar likha hai yaar :)
dil bheeg gya sach me ..

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

अद्भुत सोच ...

दिगम्बर नासवा said...

अपने होने की सार्थकता बयान कर रही है ये अध्बुध रचना ... गगब के भाव हैं ...

रचना दीक्षित said...

बहुत अच्छी सकारात्मक सोच वाह कितना अनोखा है सब कुछ आमीन

Kailash Sharma said...

अद्भुत भावों से परिपूर्ण प्रस्तुति..बहुत सुन्दर

richa said...

वो जो अधूरा सा फिर रहा था कहीं
जिसे तुमने पूर्ण किया
जिसके लिये ये सृष्टि गढ़ी तुमने
अगली बार
जब उसके लिये कोई भेंट तैयार करना
तो एक इन पञ्च तत्वों में
एक तत्व और डाल देना...
उस जाम में मिला देना
थोड़ा सा गाढ़ा, चिपचिपा
शहद सा प्यार
फिर ना दूर जा पायेगा तुमसे
कल ही "निरोगधाम" में पढ़ा था
शहद याददाश्त भी बढ़ाता है !!!

डिम्पल मल्होत्रा said...

नई सृष्टी !! wow!
सच में ऐसा अलग सा ख्वाब किसी का नहीं होगा....इस कविता में अलग सी नज़र आयी हो..:)

mridula pradhan said...

very good.

संजय भास्‍कर said...

प्रिया जी
नमस्कार !
बहुत अच्छी सकारात्मक सोच
कमाल की लेखनी है आपकी लेखनी को नमन बधाई