Wednesday, September 29, 2010

हमको यूँ ही तो परिंदों से प्यार नहीं

कुछ तो है जों ख़ास नहीं ,
हमको यूँ ही तो परिंदों से प्यार नहीं,
क्यों न आज इस राज से पर्दा उठाये ,
इस उन्सियत का किस्सा सुनाये.




इस कायनात में ...
हमने रंग भरना चाहा
गगन के कैनवस पर ...
मगन होकर मुझ कविता ने
एक गीत लिखना चाहा


मदमस्त चौकड़ी भरती
हिरनी सी लेखनी मेरी
गीत की जगह तस्वीर सजा बैठी
ख्वाबों का आशियाँ बना बैठी


ऐसा भी कभी होता है कहीं
लफ्ज़ आकर लेते है क्या कभी
कुछ तब्दीलिया हुई थी कहीं
वरना लेखनी की ऐसी हिमाकत तो नहीं


कोई स्पर्श मेरे हाथो से टकराया था
उसने हौले से ब्रुश पकड़वाया था
मेरे जहन, दिल को इशारे पे नचाया था
ये तस्वीर उसके ही वजूद का सरमाया था



तस्वीर बहुत प्यारी थी ,
भविष्य की सारी जानकारी थी
घर, आँगन, फूल, ऋतुएँ
हरियाली परिंदे थे
चाह्चाहती सुबह ,
गुदगुदाती शामें थी
खुशगवार आलम था






लेकिन!
बादलों का कुछ और ही मन था
उनको भी वही अपनी आँखें नम करनी थी
तस्वीर के कच्चे रंगों पर ही वो गिरनी थी




कोई एब्सट्रैक्ट आर्ट रह गई थी अब वहाँ
जिसका कोई एक मतलब नहीं होता है यहाँ
सबके दिमाग अलग ढंग से सोचते हैं
एक तस्वीर के हज़ार व्याख्यान परोसते हैं






अरे हाँ !
कुछ बचा था वहाँ
दो परिंदे


एक तो मेरे पास महफूज़ है
दूजे को हिफाज़त से उड़ा ले गया कोई

सलामत है वो
है यही कहीं
लेकिन
तलाशती हूँ उसको
शायद दिख जाए मुझको
पगली सी हर परिंदे की तस्वीर खिचती चलती हूँ
फिर मिलान करती हूँ उसका अपनी एल्बम से

बेवकूफ! मैं
नहीं समझती
परिंदे होते नहीं ठहरने के लिए
वो तो बने हैं सिर्फ उड़ने के लिए

बस ! इसीलिए मैं उनसे प्यार करती हूँ
क्योंकि मैं भी परवाज़ में विश्वास करती हूँ


Saturday, September 18, 2010

कच्चे धागों का पक्का रिश्ता

कैसे बनता है कोई रिश्ता ?
मन के कच्चे धागों का
पक्का रिश्ता

खोने-पाने का भय नहीं
बंधन की चाह नहीं

वो नज़र-अंदाज़ करें
तब गुस्सा तो आता है
लेकिन
गिला जैसी कोई बात नहीं

कहीं छूट ना जाये ये डोर
डर तो है लेकिन
अफ़सोस जैसे हालात नहीं

भावों को जता दूं मैं
ऐसे शुष्क भी जज़्बात नहीं

उन्हें जान-पहचान की
खबर तो है
लेकिन
मन की सीलन
का अंदाज़ नहीं

मालूम है! एक दिन
ये शोर थम जाएगा
मन के कच्चे आँगन
पर नया रंग पुत जाएगा

लेकिन जब कभी
फिजा में
स्वर सुनाई दिया तो


हौले से
धड़कने बढ़ जाए शायद
रूह मचल जाए शायद
सन्नाटा पसर जाए शायद
तब

इस बेशर्त रिश्ते पे
किसी टिपण्णी की
कोई दरकार नहीं

-------प्रिया

Friday, September 3, 2010

काश! मैं लड़का हो जाऊं


काश के मैं लड़का हो जाऊं
फिर समझूं
ये दादागिरी टाइप चीज़ क्या होती है
बिन निमंत्रण दावत उड़ाने का क्या मज़ा है
बिन गिफ्ट पार्टी में शिरकत से क्या फील होता है
बियेअर, वाइन, व्हिस्की रम
इसके साथ वीकेण का क्या मज़ा है


अबे, साले,अमा यार, कमीने जैसे शब्द मेरे लहजे में हो
दोस्तों से उधार ले ना चुका पाने का एक रुतबा
किसी ढाबे पे बिन पेमेंट खाना खाने का आनंद
वो सिगरेट के कश के साथ सारे डिशकशन
ये कैसी अनुभूति देते हैं ?




लड़की को देख दिल का लडखडाना,
गर्ल्स कॉलेज और हॉस्टल के सामने
पूरा दिन बिताना
वो बेमतलब लड़कियों का पीछा कर
मीलों की दूरी तय करना
किस तरह का अचीवमेंट है ?




बिन सूचना दिए घर से कहीं भी चले जाना
वो देर रात वापस आना
वो माँ का टोकना
पापा का मारने के लिए दौड़ना
बहन का बचाना
फिर झूठे बहाने बनाना
सुबह उठ सब भूल भाल
पुराने धंधे में लग जाना
काश! मैं लड़का हो जाऊं
तो जानू इसका मज़ा क्या है?


स्पाइकी हेअर,स्टाइलिश लुक
माल्स में रश
बाईक में गर्ल फ्रेंड
उधार की गाडी
वो ठीक दस बजे वापसी की ज़िम्मेदारी
रिजर्व में पेट्रोल
जेब में पैसे गोल
पैदल गाड़ी की ढुलाई
लौटाते वक़्त दुश्मन दोस्त
की प्रेम भरी धुनाई





साला! बेवजह एक लड़की के खातिर
फजीहत उठाई
यार! लेकिन इम्प्रेशन बन गया इस बार
नेक्स्ट वीक डेट पर आने को तैयार है
केलेंडर में वो दिन तो बड़ा ख़ास है
काश! मैं लड़का हो जाऊं तो जानू
ये कैसा सुख है ?



इनमें से कुछ नहीं किया मैंने
उठने बैठने का सलीका,
जुबां में तहजीब
आने -जाने की इजाजत
हर फैसले में हिस्सेदारी
आखिर कुछ तो सीखो जिम्मेवारी


तुम पर भरोसा है बेटा
लेकिन ये दुनिया बहुत बुरी है
और मेरी गुडिया सीधी बड़ी है
बस इसलिए तो टोकते हैं
तेरा भला सोचते हैं
इसलिए तो रोकते हैं .



सोचती हूँ शादी के बाद ही कुछ कर गुजरूँ
आजा रे कन्हया तोहे राधा बनाऊ के तर्ज़ पर
पति देव को क्यों ना लड़की बनाऊं
और खुद लड़का बन
उन्हें भी लड़की होने के मजे बताऊँ :-)


( नोट :- मेरी इस रचना का उद्देश्य लड़की Vs लड़का जैसी किसी भी जंग झेड़ने का नहीं है, हमने लिख कर आनंद लिया....आप पढ़ कर आनंद लीजिये )
तेरे  जाने का सबब मालूम नहीं
आने की भी वजह कहाँ थी कोई
आज बहुत याद आये तुम
सोचती रही
क्यों किया ऐसा ?
कोई गलती बताते मेरी
गुस्सा करते,
चीखते, चिल्लाते, झगड़ते
इल्ज़ाम लगाते
बिन आहट  चले गए 
दबे पाँव

अलमारी खोली
फाइल निकाली
वो नन्ही सी डायरी ...
जिसमें सिर्फ एक निशानी है तुम्हारी
तुम्हारा नाम
 अपने ही हाथो से लिखा था तुमने
उन अक्षरों को बार-बार छु
तुम्हे मौजूदगी को महसूस किया मैंने 
अब इस बात पर तो कोई ऐतराज़ नहीं ना ?

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