Tuesday, July 27, 2010

लड़ाई के बहाने





बहुत दिन हो गए हैं
झगडा किये उससे
ढूढता रहता हूँ
लड़ाई के बहाने अक्सर



सुबह ही टी-सेट का नया कप तोडा,
गीला तौलिया बिस्तर पर छोड़ा,
बाथरूम में साबुन का झाग फैलाया,
पोंछे के वक़्त चप्पल के साथ अंदर आया,
गार्डनिंग के बहाने गमला तोडा,
टेस्टी ब्रेकफास्ट प्लेट में आधा छोड़ा



दोपहर के खाने पर भी मुहं बिचकाया
कमरे में उसके घुसते ही
रिमोट पर हाथ अजमाया

इतने पर भी वो कुछ नहीं बोली
स्टाइल से पूछा " एवरीथिंग इस नोर्मल





तुम्हारे टाइप की बनाने की कोशिश कर रही हूँ
चहकती रहती हूँ ना दिनभर
संजीदा रहकर बुद्धिमान बन रही हूँ
मेरी बक-बक से तुम्हारा दिन ख़राब होता है ना
आज खामोश रहकर तुम्हारा साथ दे रही हूँ



ओहो! तो ये एक हफ्ते पुरानी कहानी है
इसी वास्ते रूठी-रूठी सी मेरी रानी हैं
सोचता हूँ ..इगो परे कर कह ही दूं
के ये बदलाव मुझे अच्छा नहीं लगता
तेरे गुस्से, बिन घर, घर नहीं लगता
औ डांट बिन सन्डे, सन्डे नहीं लगता



शाम साथ में आउटइंग का प्लान करता हूँ
वापस आकार फिर से लड़ता हूँ
सच्ची! कितने दिन हो गए हैं दोस्तों !
उसके गुस्से की बरसात से भीगा नहीं हूँ मैं



" प्रिया "

Friday, July 16, 2010

संभाल लो मुझे



भीड़ सी मेरे आस-पास चलती रहती है
तन्हाई मुस्कराहट का लिबास ओढ़े खड़ी रहती है
एक बाज़ार सा माहौल है मेरी दुनिया में
जहाँ सब कुछ बिकता है


एक दूकान तो मेरे अन्दर भी खुल रही है
कोई झुन्झुलाहट या झल्लाहट पनप रही है
किसे बेचू ? कौन खरीदेगा ये सब ?
मोल-भाव में अभी कच्ची हूँ .




मेरे ख्वाइशों की परवाह कौन करता हैं
यहाँ तो ख्वाबों का भी दाम लगता है
फिर भी मन के किसी कोने में
एक उम्मीद जल रही है


वो आये आके थाम ले मुझे,
तलाश ले वो, जो मेरा वली है


इससे पहले के मेरा ज़मीर लुट जाए
जहन मैला हो जाए
संभाल लो मुझे.
"प्रिया "

Wednesday, July 7, 2010

प्रकृति, पुरुष और एक प्रयोग




सोचती हूँ

आज डूबने न दू सूरज को

साँझ साथ न काटूँगी

आज की रात





मैं तेरे खातिर

अपना घर , परिवार

सहेलियां, बचपन सब

त्यागने वाली हूँ





तू मेरे खातिर

एक रात नहीं ठहर सकता?





ज्यादा से ज्यादा क्या होगा ?

लोग कहेंगे

एक बार सूरज ही नहीं डूबा

चाँद ही नही निकला,

सितारे नही चमके आसमां पर





कुछ अध्यात्म से जोड़ेंगे

कुछ वैज्ञानिक रहस्य टटोलेंगे

फिर चर्चाओ का बाज़ार गर्म होगा

तुझ पर नया शोध होगा

ज्योतिषो की दुकान चल निकलेगी

बस ग्रहो के चाल बदलेगी





नाम तो है ही तुम्हारा

और प्रसिद्धी मिल जायेगी

मेरी बात जो मानोगे

तो चैनल्स को भी टी०आर०पी० मिल जाएगी




मैं जो कल थी

वही रह जाऊंगी

जननी तो स्रष्टी ने ही बनाया

तुम गर चाह लो तो .........

नियंत्रिका भी कहलाऊंगी






एक बार नैसर्गिक नियम तोड़ कर देखो ना

थोडा सा जोखिम लेकर देखो ना

तुम पुरुष हो और मैं प्रकृति

हम दोनो एक दूजे से ही है

तो फिर

मेरी बात मानने से इनकार क्यों ?




सुनो ना!

रुक जाओ

हमेशा तो सोचते हो

ब्रहमांड के बारे में

आज मेरे और अपने खातिर

अंधेरे को रोशन कर दो

चौबीस घंटो का उजाला कर दो





वो भेड़ चाल कब तक चलोगे?

कुछ नया प्रयोग करके देखो ना

ना डूबो आज पश्चिम में

एक रात तो धूप खिलाकर देखो ना




"प्रिया"