Monday, December 21, 2009

" एक तर्जुमा मेरा भी "


लखनऊ की
तंग
गलियों से गुज़रते हुए
दो शोहदों को
अदब
से लड़ते देखा जब
तो उनकी इस तकरार पर
प्यार आ गया।



उनका तर्जुमा
कितना
सच्चा
रवाँ
रवाँ सा था
वरना
इस जहाँ में
सच तो सिर्फ़ एक लफ्ज़ है
और झूठ कारोबार,
एक खोखली बुनियाद के साथ।



शायद !
इसी वजह से हर साल...
इमारते ढह जया करती है ईंटो की ...
और रिश्तो की भी.....
अजीब है! दोनो सूरतों में
आँखें ही नम होती है
दिल नही




"प्रिया चित्रांशी "

चित्र : गूगल से