Friday, November 27, 2009

रास्ता और वो

सोचा था .....खुद को दूर रखेगे ब्लॉग से....नहीं लिखेंगे कोई रचना ....ब्लॉग्गिंग से दूसरे जरूरी कार्यों पर असर होता है .....पर कविता कहाँ दूर रहती है आपसे ... वो तो हर पल साथ होती है कभी जिंदगी, कभी साया, कभी तजुर्बा तो कभी हमसफ़र बनकर .....नहीं रख पाए हम खुद को कविता से दूर.... इसलिए हाज़िर हैं एक बार फिर आप सबके बीच अपनी जिंदगी के सिर्फ तीस मिनट लेकर.......हम उम्मीद करते हैकि हमारी जिंदगी का ये आधा घंटा रास आएगा आपको :-)






सर्दियों में न शब् जल्दी आ जाया करती है
ऑफिस से घर लौटते वक़्त अँधेरा हो जाता है
सड़क पर चारो तरफ भीड़ ...
ट्रैफिक का शोर....
तकरीबन तीस मिनट लगते है रास्ता तय करने में......



कोई है ! जो मेरा हमसफ़र बनता है इस बीच
कल देखा था आसमां पर
जब पीले- पीले बदन पर
लाल साफा बाँध कर आया था
बस! देखा किये उसे हम।



रास्ते भर लुका-छिपी चली हमारी
बैरी इमारते बीच में आ जाती हैं हमारे
रोज़ घर तक पहुंचा जाता है हमको
फिर हम मुस्कुरा कर जुदा होते हैं एक दूजे से।



जीवन की उहा-पोह में...
हमनवां के साथ गुज़रे वो तीस मिनट
कुछ अरमां, कुछ सपने दे जाते हैं
जो ऊर्जा बन पूरे दिन साथ रहते हैं
और फिर
नज़्म बन कागज़ पर छा जाते हैं।



सुनो चाँद! कल न.....
काला टीका लगा कर आना
सरेआम तुझसे मोहब्बत का इकरार किया है हमने
डर है ज़माने की नज़र न लग जाये॥




"प्रिया चित्रांशी "



Wednesday, November 11, 2009

"और पत्ता हरा हो गया"






" तू तसव्वुर में नहीं था लेकिन ,
सूखे पत्ते पे तेरा चेहरा दिखाई देता है
हैरानगी और भी बढ़ जाती है ...
जब वो पत्ता हरा दिखाई देता है। "






Sunday, November 1, 2009

बूँद





(एक साहित्यिक वेबसाइट पर पूर्व प्रकाशित इस कविता का प्रकाशन आज हम अपने ब्लॉग पर कर रहे है आप सभी का शुक्रिया जो हमेशा अपनी अमूल्य राय से हमारा मार्गदर्शन करते है और उत्साहवर्धन भी हमको इस बात का दुःख भी है कि हम आप सभी के ब्लॉग पर आकर अपनी प्रतिक्रिया नही दे पाते......फ़िर भी आप हमें अपना प्यार - आर्शीवाद देते है और सुझाव भी उम्मीद है कि ये रिश्ता यूँ ही बना रहेगा ....... )







अंजाम से बेखबर बूँद जब आसमां से चलती है
कभी ज़मी उसकी राह तकती है,
तो कभी सीप उसके आने से डरती है,
फ़ना होना तो उसका मुक्कदर है,
फिर भी जिंदगी से प्यार करती है।



गिरी एक पत्ते पे तो शबनम बनी,
शायर की नज़र पड़ी तो ग़ज़ल बनी,
सूरज ने जो रोशनी से जलाना चाहा
बन तारे उसने धरा को सजाना चाहा।



नन्ही सी उम्र में सूरज को चुनौती दे दी,
जाते-जाते जहाँ को निशानी दे दी,
समंदर के पानी में मोती बन वो रहती है,
किसी के आँखों में दरिया बन वो बहती है।



कलियाँ ओस चख चटक जाती है,
तितलियाँ रस पी जवां हो जाती है,
पेड़ नई कोंपले रख नहाने को तैयार है,
बादल फिर धरा को भिगोने को बेताब है।



बूँद पलकों पे आंसू सजा बाबुल से जुदा होगी फिर,
सैया संग, उमंग ले भारी मन से विदा होगी फिर,
"धरा ससुराल" बहार संग स्वागत के लिए तैयार है,
एक नव-वधु का आज फिर दूसरे जहाँ में दीदार है ।