Monday, June 29, 2009

"पहली बारिश"





आज पहली बारिश ने मदहोश कर दिया,
तपती रूह को तर कर सराबोर कर दिया ,
एक झोंका हौले से छूकर चुनर लहरा गया ,
फिज़ा ने कान से टकरा कर एक मद्धम गीत गा दिया।



एक लट रुखसारों को छूती हुई ...
कान की बाली से उलझ गई,
मौका देख एक बूँद गाल को चूम गई,
बूँद की बेहयाई ....
हया बन आँखों में उतर गई।




नज़र उठा जब आस-पास देखा ..
झूमते पत्ते, इठलाती तितलियाँ ...
इन्द्रधनुषी रंग , नाचते पंछी, लम्बी राहे...
ताक- ताक मुस्कुरा रहें थे ,
हम दीवाने से बरसात के रंग में रंगे जा रहे थे।




मन बांवरा मदहोश हो गया,
इन धडकनों पर इसका जोर हो गया ।


सुन मौसम ! बदल दे मिजाज अपना जल्दी
घबरा रहे हैं हम कि कहीं
" हमहें तुझसे मोहब्बत न हो जाए "





Friday, June 26, 2009

"मन की गिरह"


( डॉ श्याम गुप्ता जी के सुझावों पर अमल करते हुए कविता में कुछ परिवर्तन किया है, उम्मीद है की आप इसे पसंद करेगे)


जी चाहता है मन की गिरह खोल दें ,
जो कुछ अंदर छुपा हैं सब बोल
दें ,
ज़माने के फेर में हम पड़ गए थे ,
उलझी सी दुनिया में उलझ से गए थे।




कोशिश की हवा के साथ बहने की,
झूठी, मक्कार, बेईमान,सफ्फाक बनने की,
इस दिशा में सारी जुगत लगाई,
जो नहीं सीखी थी वो भी तरतीब भिड़ाई।





अफ़सोस! मेरी पहली तरकीब काम आई,
तकदीर हमें बेइज्जत कर वापस सही राह पर लाई,
हम अपनी हार का विश्लेषण कर गए,
और फिर पूरी लगन के साथ नए प्रयास में जुट गए





जब हालात की तासीर को चेहरे की तहरीर बनने दिया,
तभी नैनों ने सच्चाई का दामन पकड़ लिया,
नयना बिन बोले सब कह गए ,
हम तो अपने ही नैनों से छले गए।





फिर भी हार नहीं मानी हमने ...
सोचा अबकी बार गहरी चाल चलेंगे,
राजनीति,कूटनीति, दोहरे मानदंड अपनाएंगे,
इन भ्रष्ट और गंदे लोगो के बीच कुछ तो जगह बनायेंगे।





पर इस बार भी वही हुआ ...
शह देते - देते, ज़माने की चाल से मात खा गए ,
और एक जीर्ण - क्षीण मोहरे का शिकार हो गए



अब तो लगता नहीं कुदरत हमारा साथ देगी ,
भ्रष्ट बनने की हमारी हर कोशिश नाकाम होगी ,




हालात कितने भी दुश्वार क्यों हो,
हमारा हाल कितना भी बदहाल क्यों हो ,
नहीं लगता है कि बुराई से समझौता कर पायेंगे,
संस्कारी है भई हम तो , भ्रष्ट बन पायेगे




कुनितिवान, भ्रष्ट लोगों के मध्य संस्कारों की नींव डालेंगे ,
अपने आत्मबल, स्वावलम्ब और चरित्र को टटोलेंगे,
भरोसा है खुद पर के कीचड में कमल खिला सकते है,
हजार सही कम से कम एक विधोत्मा, गार्गी या ध्रुव तो बना सकते है।




चलिए इन्ही विचारो के साथ आगे बढ़ते है ,
आँगन में पुरखों के संस्कारो का बीज रखते है,
अब तो इन्ही पौध को रोज़ सींचना है ,
नई तकनीको और स्वस्थ मस्तिष्क के साथ रोपना है।




आर्यावर्त की धरा पर एक बार फिर कुंदन बरसेगा ,
जब यहाँ का हर युवा पाश्चात्य देशो में .......
भारतीयता का लोहा मनवाएगा ,
और पश्चिम भारतीय संस्कृति के रंग में रंग जायेगा।





Friday, June 19, 2009

आसमां के आगे एक जहाँ हो तो

(कल्पना ... इंसान के जीवन का अविभाज्य अंग.... कोई माने या माने ...कल्पना करते तो सभी हैं जिसकी उड़ान की कोई सीमा ही नहीं होती। भले ही ये ज़मीनी हकीकत से दूर हो और कुछ लोगो की जिन्दगी में पानी के बुलबुलों से ज्यादा कोई मायने हो इनके ... पर कुछ के लिए तो ये जिंदगी हैं....ख़ुशी हैं , सुकून हैं फिर भला आत्मिक सुख से बड़ी कोई चीज़ हैं क्या संसार में। शुक्रगुजार होना चाहिए हमें विधाता का कि उसने इंसान को ये फितरत बख्शी कि वो कल्पना के संसार में गोता लगाकर सृजन करता हैं.....आनंदित होता हैं और आनंद बांटता हैं......
भले ही आपमें से कुछ लोग मुझसे सहमत हो या हो ........मेरी सोच, मेरी कल्पना पर किसी का बस ही नहीं , खुद मेरा भी नहीं....जो सहमत हैं वो मेरे साथ हो लें .....जी ले एक खुशनुमा जिंदगी ......धरती और गगन के उस पार)



"आसमां के आगे एक जहाँ हो तो"


आसमां के आगे एक जहाँ हो तो,
उस जहाँ में अपना एक आशियाँ हो तो,
मैं कुछ नए, कुछ अलग से ख्वाब देखू तो


आसमां के आगे एक जहाँ हो तो.................


हम हवां पे तैर कर आगे बढ़ें...
नदियाँ का पुल हो...
और हम पुल के नीचे रहें
सूरज की गर्मी में रोटी हम पका लें ,
चंदा की कड़ाही में दाल बना लें


आसमां के आगे एक जहाँ हो तो.....


हाथ बढ़ा कर नदिया में मछली पकड़ ले ,
सीपों की नइयां में हम सइयां से मिल ले
बादलों के बिछोने पे बिस्तर हो अपना ,
फ़रिश्ते मेरे घर का पहरा करे तो।


आसमां के आगे एक जहाँ हो तो.....


चिया गाकर मुझे जगाये ,
फूल हँस मेरा घर महकाए,
अप्सराए मेरा श्रृंगार कर दे,
जुगनू जबरदस्ती मेरी झांझर बने तो


आसमां के आगे एक जहाँ हो तो.....


तारे मेरा घर रोशन कर दे ,
भवरें गुंजन कर मुझे लोरी सुलाए ,
बरखा कि बूंदे मेरी सखिया हो जैसे,
ओंस आकर मेरे गालो पर तिल सजाये तो


आसमां के आगे एक जहाँ हो तो................


मेरी खिलखिलाहट पर सीप मोती उगल दे,
मेरे केशो की लहर से जलजले रुख बदल दे,
मेरी चाल पे ऋतुए बदल जाये तो,
मुस्कराहट के एवज में पैसे मिले तो।


आसमां के आगे एक जहाँ हो तो................


क्यों मिल कर एक ख्वाब उल्टा-पुल्टा देखे,
ला पाए एक नीड़ ख्यालो का धरा पर तो,
पहुँच जायेगे पंख लगा हम वह तो,
कोई सपना सच जैसा ही रहे तो



आसमां के आगे एक जहाँ हो तो............


कस कर आँखों को भींच रखा हैं,
जैसे आईने में अपना अक्स संभाल रखा हैं,
टूटा अगर तो अक्स बिखर जायेगा...
आज सिर्फ मेरा हैं, कल हजारों का बन जायेगा


आसमां के आगे एक जहाँ हो तो....






Sunday, June 14, 2009

" वो लड़की "

(आज जो कविता पोस्ट करी हैं, उसके सन्दर्भ में सिर्फ इतना कहना चाहूंगी कि यदि आप ब्लॉग पर आये हैं तो कृपया इसे पूरा पढ़े तत्पश्चात ही अपनी टिपण्णी व्यक्त करें। )



एक लड़की को देखा मैंने चौराहे पर,
देखती गई -देखती गई,
जाने क्यों देखती गई...
वह मेरी अपनी नहीं थी,
पर लगा कि पराई नहीं हैं
वह उम्र में मेरे ही बराबर थी ...
जिंदगी की आधुनिकता में ,
मैं उससे आगे थी



आँखों में झाँका तो ऐसा लगा,
मानों, मौन होकर भी सवाल करती हैं,
पर मैं निरुत्तर थी,
शायद मेरी आँखें भी सवाली थी,
जो बेजवाब होकर खुल-बंद रही थी।



उसमें वो सबकुछ था जो मुझमें हैं,
शायद मुझसे भी ज्यादा, बहुत कुछ
वो भी एक नारी थी, मैं भी एक नारी हूँ
ईश्वर की अनुपम, अद्वितीय संरंचना।


उसकी आँखें बड़ी थी, पर उनमें चमक थी
वो खाली थी, कुछ भरी भी,
उसकी आँखों में निराशा, तृष्णा के भाव थे...
कटि तक लम्बे बाल, देखा तो ऐसा लगा ......
जैसे कई दिनों से संवारा भी हो ....



उसके बालों में बेजान, खंडहरनुमा तस्वीर थी,
होठों को कमल की संज्ञा दी जाये,
अतिशयोक्ति होगी,
पर उनमें चिकनाहट होकर दरारे थी ,
मानों किसी कारीगर ने
ईंट की दीवार खड़ी की हो,
फिर भी मैं कहती हूँ......
वो खूबसूरत थी , बहुत खूबसूरत .............



वो नारीत्व से परिपूर्ण थी,
स्वयं को सजाने में अपूर्ण थी,
वो वस्त्रो में सिमटी थी,
वो भी बेवफा से,
उसका मज़ाक उड़ा रहे थे.....



उसके चेहरे में आकर्षण था,
पलभर का आकर्षण अनुपस्थित था ,
मैं उसे घूर कर देख रही थी,
वो कोने में सिमटती जा रही थी ,
शायद, इन्फेरिओरिटी कोम्प्लेक्स सफर कर रही थी



हाय! पुरुष प्रधान समाज ......
तूने उसे भी छोड़ा.....
उस पर भी छींटाकशी हो रही थी,
और वो बेपरवाह सी, अपने बारे में सोच रही थी



एकाएक मेरी ऑटो चल दी ...
मैं उसी देखती गई, देखती गई, देखती गई................
जबतक वो मेरी आँखों से ओझल हो गई
और मेरी ऑंखें सवाली हो गई ..
ऑटो में बैठी - बैठी कुछ सोचती चली गई ........
और ऑटो मेरे स्टॉप से आगे निकल गई ......




उसके अस्तित्व ने
शरीर और आत्मा को झकझोंर दिया
क्यों ? मैं खुद नहीं जानती
मेरी आँखों में उसका चित्र आज भी हैं ..
चित्रकार तो नहीं , पर लिखती जरूर हूँ .....
अतः कलम उठ गई,
मन के भावो को कागज पर उतार दिया ,
चित्त में शांति अभी भी नहीं हैं
जाने ये अस्थिरता कब दूर होगी .....
दूर होगी भी या नहीं ...
मैं अनजान हूँ .


२५ मई १९९७

Wednesday, June 10, 2009

क्षितिज का रहस्य




(बहुत बार देखा हैं, आकाश का धरती पर झुकना ...सूरज का सागर में डूबना ... दूर खेतों में सूरज का फसलों में समाना .......कई बार दौड़ी हूँ ...दूर तक ...क्षितिज को पकड़ने के लिए........ फिर पता चला कि पृथ्वी और आकाश को जुदा करने वाली ये एक रेखा हैं ...... भ्रम हैं ....पर मेरे मन ने कभी इस बात को स्वीकार ही नहीं किया। मुझे लगता हैं ये सच हैं .......शायद रहस्यमयी या फिर अनसुलझा सच .......मेरे हिसाब से ये एक उम्मीद हैं ....जहाँ उम्मीद हैं वहां जिंदगी हैं ....आस हैं......सपने हैं, ख्वाहिशे हैं.........

ये सिर्फ मेरी कृतियों का ब्लॉग नहीं बल्कि मेरे ख्वाबो , ख्यालों ,ख्वाहिशों का घर हैं ....जहाँ सच और कल्पना का अनूठा संगम हैं ..... आइये मेरे साथ मिलकर प्रकृति के इस नज़ारे को नए तरीके से देखें।)




मौसम ने फिर अंगडाई ली ,
खिली - खिली धूप ने विदाई ली,
मेघो ने तान दी हैं चादर धरा पर,
झोंको ने घोली हैं मधुरता फिजा में


धरती, गगन के इस अद्भुत मिलन पर,
पंछियों ने नए गीत गए,
वृक्षों ने उत्साह में हिलोरे लगाये,
नदियाँ बलखा के उफनने लगी हैं...





उफक की मौजूदगी..
एक सवाल हैं..
या फिर कायनात की एक गहरी चाल हैं,
खैर ! जो भी हो ....
चीज तो ये बेमिसाल हैं


नहीं मानती मैं क्षितिज के उस भ्रम को..
ज़माने ने झूठ बोलकर सदियों से छला हैं,
हकीकत तो ये हैं कि गगन हर बार,
बादल बनकर धरती से मिला हैं


असल में ये दो प्रेमियों की अमर प्रेम कथा हैं...
जिन्होंने दुनिया की बिसात पर,
मोहरे बनकर,
अभी सिर्फ एक बाजी खेली हैं


खेल के निशान अभी भी हैं कायनात में...
हाँ लोग क्षितिज कह कर बुला लिया करते हैं,
बाजी बिछी हैं, खेल अधूरा हैं,
कोई शह , कोई मात...


ज़माना सदियों से फंसा हैं,
दूसरी चाल में,
प्रकृति बैठी हैं चुपचाप,
अगली चाल के इंतज़ार में . ........






Saturday, June 6, 2009

कुछ बातें पेंचीदा सी













कल शेल्फ से किताबें निकालते वक़्त,
चीटियों की लम्बी कतार देखी.............


चली जा रहीं थी .......
चौकन्नी, तेज़ रफ़्तार...
गंतव्य की ओर....

उनमें से कुछ ...
लुढकी, गिर पड़ी ........


गिरने वाली को ,
किसी ने देखा..
सहारा दिया ...

जो गिरी थी .......
उसने झट से उठ...
फिर दौड़ना शुरू किया...

हाँ ! कुछ ने बातें की ....
मुलाकाते भी की ...
फिर चल पड़ी
अपने - अपने रास्ते

ये सब देख एक ख्याल यूँ ही गया ................

"जिंदगी की दौड़ में,
खोने - पाने की जद्दोज़हद में ,
मिलकर बिछुड़ते ...
रिश्ते हों जैसे "