Friday, May 29, 2009

बादलों की नादाँ जिद



आकाश में बादलों ने तारों को ढक लिया,
लोगो ने कहा,
मौसम सुहावना हो गया,
पर किसी ने न सोचा तारों की घुटन को,


तारे बेताब, वसुंधरा की एक झलक के लिए,
पहुचे शिकायत लिए सूरज के पास,


सूरज ने समझाया,
हे बादल! सिमेट ले खुद को,
बादल बोला, इनका रूप, इनकी चमक मेरी हैं,
कैसे करुँ, बेपर्दा इनको,


सूरज ने कहा, बेपर्दिगी इनकी प्रकृति हैं,
बादल बोला , प्रकृति बदलनी होगी,


इधर धरती पर, आनंद ही आनंद है,
मौसम का मिजाज भा रहा हैं लोगो को ,
अनजान हैं यहाँ सब,
दूसरे जगत के कोहराम से,


उधर सूरज, खामोश, गुमसुम सा,
थोडा सा हैरान,
आने वाले खतरे से परेशान,
चाह कर भी न बादल सका, बादल का भविष्य,


बादल बूंदों का बोझ सह न सका,
बरस पड़ा धरती पर,
तारे बेपर्दा हुए,
और धरती की प्यास मिट गई .

मर मिटा बादल एक जिद पर तो क्या,
दोनों जहान खुश हैं, रोशन हैं,
तारे फिर टिमटिमा रहे हैं,
धरा पर फसले लहलहा रही हैं,

सच! कुछ ज़िद कितनी
"ज़रखेज़ " होती हैं।



ज़रखेज़ - fertile

Sunday, May 24, 2009

जिंदगी मैंने तुझे कुछ यू थाम रखा हैं


जिंदगी मैंने तुझे कुछ यू थाम रखा हैं,
जैसे आँखों में काजल पाल रखा हैं।

तूने जीने के नए मायने दिए,
मैंने उन मायनो में खुद को बाँध रखा हैं।

जरा हौले से बदलना वक़्त का रुख,
मेरे हमसफ़र तेरा ख्याल अच्छा हैं।

मौसम बदलते रहे तमाम उम्र,
किसी ने पुछा मिजाज़ कैसा हैं।

जिंदगी आखिरी दम पे दौड़ा मैं बहुत तेज़,
फतह के पड़ाव पे तजुर्बे का काम अच्छा हैं।

इस तजुर्बे ने बदल दी हैं फितरत मेरी,
मेरी सादगी में सियासत का रंग पक्का हैं।

अब मैं वो रहा जो मैं था,
ईमारत
के कंगूरे पे लिखा नाम झूठा हैं।

Tuesday, May 19, 2009

फूलों के मध्य अदभुद संवाद



बगीचे में एक अजीब इत्तफाक हुआ,
फूलों के मध्य अदभुद संवाद हुआ,
प्रकृति की विडम्बना देखिये.....
उस अनोखी कथा कि मैं साक्षी बनी हूँ,
भाग्यशाली हूँ शायद,
जो बयां करने लायक बनी हूँ..............

एक फूल ने दूसरे फूल से कहा,

जब तितलियाँ इठलाती हुई, पंख
फड़फड़ाती हुई,
अपने शूल को चुभोकर, रस चूसती हैं,
पीड़ा होती हैं, कराह पड़ता हूँ मैं,
पर मैंने तुम्हारी सिसकियों को कभी नहीं सुना,
यही चलन हैं कुल का अपने ,
ऐसा विचार कर, चुप रहा, दर्द सहा,
फिर भी मस्त रहा ।

इस पर दूसरा बोला
.........

बाग़ को महकाने के लिए,
अपनी संतति को बढ़ाने के लिए,
चक्षुओ में स्नेह दर्शाने के लिए,
सदियों से कुफ्र सहे हैं हमने ,


अजीब हैं न ये बात.........
मुझको भी भेदा था इसने,


आज, फूलों
की आह का मर्म समझ में आया हैं,
खिलखिलाहट के पीछे का दर्द समझ में आया हैं
मुस्कराहट के पीछे कि ये दास्ताँ दिल पे निशां छोड़ गई ,
और कागज पर बिखर एक संजीदा व्यथा बोल गई .........













Sunday, May 17, 2009

बच्चन की मधुशाला


कविता अमूर्त से मूर्त का चेतन स्वरुप हैं। ये एक विचारक की संवेदना की उस पराकाष्ठा को चित्रित करती हैं जिस विचाररूपी महासागर में वो गोता लगाकर, उन भावो को जी कर, कभी कविता, कभी कहानी, कभी ग़ज़ल, तो कभी किसी और रूप में बाहर निकल, लोगो के बीच पहुँच, उनका अपना चरित्र बन, फलती-फूलती,चिरायु हो अनवरत जीती हैं ।

हरिबंस राय बच्चन जिनका नाम ही काफी हैं, मधुशाला उनकी हैं या वो मधुशाला के ....... दोनों एक - दुसरे के पूरक ही माने जाते हैं।

कविताओं में रूचि रखने वाला शायद ही बिरला कोई ऐसा होगा, जिसने "मधुशाला" का नाम नहीं सुना। जिसने पढ़ ली वो तो जैसे मधु रुपी गंगा में गोता लगा कर निहाल हो गया, जो कविता को पसंद करते हैं, उसका रस्सावदन करते हैं, उनके लिए कविता की अनुभूति ब्रह्म प्राप्ति से कम नहीं होती।

"मधुशाला" पर" मनोरंजन जी " ने एक परोडी बनाई हैं, जिसे तत्कालीन कवि सम्मेलनों में वो सुनाया भी करते थे। उसकी कुछ रुबाइया यहाँ उद्धृत करना चाहूगी

" भूल गया तरबीह नमाजी,
पंडित भूल गया माला,
चला दौर जब पैमानों का,
मग्न हुआ पीने वाला,
आज नशीली से कविता ने,
सबको ही मदहोश किया,
कवि बनकर महफ़िल में आई,
चलती, फिरती मधुशाला।"

बच्चन जी ने जब मधुशाला की रचना की, तब उनकी आयु करीब २७-२८ वर्ष की रही होगी, इस काव्य रचना ने प्रकाशित हो धूम मचा दीविद्यालयों में उन दिनों कवि सम्मलेन हुआ करते थे, छात्रों ने तो इसका दोनों हाथ बढा स्वागत किया, परन्तु आलोचक भी थेभारी आलोचना का सामना करना पड़ा था बच्चन जी को, अगर मैं गलती नहीं कर रही तो बच्चन जी से पहले किसी कवि ने इस विषय पर काव्य रचना की ही नहीं, परन्तु मधुशाला के बाद तो "मदिरा" जैसे काव्य रचना की विषय - वस्तु ही बन गई

आखिरकार बच्चन जी की आलोचना होती क्यों नहीं, उन्होंने साहित्यिक परंपरा को तोड़ने का दुस्साहस जो किया थाएक ऐसे विषय को साहित्य में शामिल करने की चेष्टा कर दी, जिसके बारे में शब्द गढ़ना तत्कालीन साहित्यकारों के मस्तिष्क की उपज ही नहीं थी

ये दुनिया ऐसी ही हैं, परिवर्तन सभी चाहते हैं, न परिवर्तन के लिए पहल करते हैं और न ही उसे जल्दी स्वीकारते हैं, अगर मैं अपने नज़रिए की बात करू तो मेरे हिसाब से मधुशाला में "मदिरा रुपी द्रव्य" का उल्लेख तो हैं ही नहीं।मेरे हिसाब से मधु अर्थात काव्य रूपी रस, और शाला पढने या सुनने वालो का समूह। स्वयं बच्चन जी ने इस बात को स्वीकार हैं, मधुशाला की निम्न पंक्तियाँ इस बात का प्रमाण हैं।

भावुकता अंगूर लता से,
खींच कल्पना की हाला,
कवी साकी बनकर आया है,
भरकर कविता का प्याला,

कभी न कण भर खाली होगा,
लाख पिए , दो लाख पिए,
पाठकगण है पीने वाले,
पुस्तक मेरी मधुशाला।

अब बताइए इस काव्यरुपी मधु का पान किया आपने या नहीं, कवि को कविता का नशा ही ऐसा होता हैं कि उसे किसी और नशे की आवयश्कता ही नहीं होती। संभवता बच्चनजी को जानने वाले जानते हैं कि उन्होंने कभी मदिरा का सेवन नहीं किया, अक्सर ये प्रश्न उनसे पूछा जाता कि आप मदिरा नहीं पीते तो आपको लिखने कि प्रेरणा कहा से मिली? इस पर बच्चन जी से कहा " नशे से इनकार नहीं करूंगा, कविता भी एक नशा हैं, कायस्थ कुल में जन्मा हूँ, जो पीने के लिए प्रसिद्ध हैं पर शराब को कभी हाथ नहीं लगाया।"
इस प्रश्न पर एक रुबाई पर के रूप में उनका उत्तर देखिये ........

मैं कायस्थ कुलोदभव,
मेरे पुरखो ने इतना ढाला,
मेरे तन के लोहू में हैं ,
पचहत्तर प्रतिशत हाला,
पुश्तैनी अधिकार मुझे हैं,
मदिरालय के आँगन में ,
मेरे दादा, परदादा के हाथ,

बिकी थी मधुशाला ।


मधुशाला के माध्यम से बच्चन जी ने सामाजिक विषमताओं का भी चित्रण किया हैं , जाति, धर्म में बटें इस समाज को अपनी कलम के धार से प्रहार कर जोड़ने की एक अनूठी कोशिश. .. देखिये इन पंक्तियों को .........

नाम अगर पूछे कोई तो,
कहना बस पीने वाला,
काम ढालना और ढलाना,
सबको मदिरा का प्याला,
जाति, प्रिये पूछे यदि कोई,
कह देना दीवानों की,
धर्म बताना प्यालों की ले ,
माला जपना मधुशाला ।

मधुशाला वास्तव में जीवन दर्शन हैं, आप वही देखते हैं जो आप देखना चाहते हैं या फिर विचारों की सीमा- रेखा को तोड़ने कि सामर्थ्य सभी में नहीं होती ........बात सिर्फ नज़रियें की हैं।

मुसलमान और हिन्दू दो हैं,
एक मगर उनका प्याला,
एक मगर उनका मदिरालय,
एक मगर उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक,
मंदिर, मस्जिद में जाते ,
बैर बढ़ाते मंदिर, मस्जिद,
मेल कराती मधुशाला ।

उपरोक्त पंक्तियाँ कवि की धर्म निरपेक्ष सोच की ओर संकेत करती हैं और साम्प्रदायिकता की खिलाफत।

दरअसल कलम कवि का हथियार है, इसी के माध्यम से वो शब्द रचना करता हैं और नए शब्दों का सृजन भी।वो तो साधक हैं जो विचारो की तपस्या कर, उनका गूढ़ मंथन कर, भाषा पर नए प्रयोग कर, उसे परिमार्जित कर, आवश्यकतानुरूप भावो के ताने- बने में बुनकर ले आता हैं लोगो के सामने। कलम ने तो अपना काम दिखा दिया ..... अब आप खोजिये उसके भीतर के रहस्यों को।




Wednesday, May 13, 2009

एक ख्वाब अधूरा सा




आसमां ने मुझको दिया एक तोहफा,
सपनो की थैली संग, एक जवाबी लिफाफा,
गीतों की सरगम पे आंखों को मूंदा,
सपनो की थैली को ख्वाबो में खोला


देखा की आसमां ने मुझको, आसमानी बनाया,
आसमानी वसन से बदन को सजाया,
ओंस की बिदियाँ, गुलाब की लाली,
घटाओ के केश और इन्द्रधनुषी बाली


बादल का आँचल, सितारों की झांझर,
सूरज सा रथ और बर्फ की गाड़ी ,
चंदा हैं कोचवान, पीछे मैं बैठी,
खोजने चली सितारों में राजकुमार


चलता रहा रथ, ढूंढती रही आँखें ,
ग्रहों में, तारों में, नक्षत्रों में,
चंदा की चांदनी में, रागों की रागिनी में,
सरगम के बोल में, मिटटी की गंध में


नदियाँ की ताल में, दीपक की लौ में ,
मन की उमंग में, मस्तिष्क की तरंग में,
लहलहाते खेत में, छुक-छुक करती रेल में
पंछियों के गीत में, जीवन संगीत में


बस राजकुमार मिलने ही वाला था,
कि किसी की आवाज कान तक आई,
आँखें खोली, जम्हाई ली, अंगडाई ली,
ख्यालों ने ख्वाबों को वापस बुलाया

एकाएक फिर आवाज कान से टकराई ......


सूरज सर पर चढ़ आया हैं,
दिन कब का निकल आया हैं,
उठ, वरना देर हो जाएगी,
"कल्पना" तुझे छोड़ फिर कॉलेज चली जायेगी

आवाज सुन हडबडाई, फिर मुस्कुराई ..
धीरे से चादर हटाई ,
घड़ी की तरफ़ नज़रे घुमाई ,
क़दमों ने किया आईने का रुख ..

सोई- सोई सूरत में ख़ुद को निहारा,
उलझे बालों को हाथो से सवारा,
मन ही मन बुदबुदाई,
ओह नो ! " प्रिया ये सपना था सपना ..

सपने को छोड़ हकीकत में आओ,
जल्दी से कॉलेज के लिए रेडी हो जाओ,
वरना वो केमिस्ट्री वाली मोटी मैम आज तो पेरिओडिक टेबल का,
एक - एक एलिमेंट चुन-चुन कर पूछेगी,
और वो मैथस के खडूस सर,
डैनामिक्स क्लास में सारे सम्स तुझसे ही सोल्व करायेगे..

ऐसा सोचते ही होश उड़ गए,
सारे सपने चकनाचूर हो गए,
फटाफट कॉलेज के लिए तैयार हो गई,
जिंदगी की सच्चाई आईने की तरह साफ़ हो गई


आज भी अफ़सोस हैं मुझको .........
माँ थोडी देर रुक जाती , तो क्या हो जाता,
झेल लेती उन टीचर्स और हालत को,
अरे! कम से कम ख्वाब तो पूरा हो जाता :-)

Saturday, May 9, 2009

कवि, कविता और साहित्य






किसी ने मधुशाला का गान किया,
किसी ने सोमरस का पान किया,
मैं अलबेली क्या करती खाली,
मैंने साहित्य की ओर रुझान किया।


जिन्दगी ने करवट ली ऐसी,
कि मैंने कवियों का सम्मान किया,
ये दुनिया बहुत निराली हैं,
कवियों कि हर अदा मतवाली हैं।



यहाँ तो सुख का सागर हैं,
दुख में भी हरियाली हैं,
हर एक सींप मोतियों से भरा हुआ,
कवि दुख वर्णित कर बड़ा हुआ।


कोई एक विषय, ऐसा कह दो,
जहाँ कवि की लेखनी नही चली,
सदियों से बहती ये जल धारा,
अमिट, अटल, अनवरत बही ।


कोई जोगी बन बैठा, कोई योगी बन बैठा,
प्रेम विरह में कोई वियोगी बन बैठा ,
जिसने सबका संताप सहा, जिसने सांसो से ज्यादा,
एहसासों का गान किया,


जीवन पथ पर चलते- चलते,
संवेग, संवेदना, भावना को जीकर,
अनायास कुछ लिख बैठा,
जगत बोल उठा सहसा " देखो ये मानस कवि बन बैठा"

इनकी दुनिया में आकर,
इतना तो समझ लिया मैंने ...................


कबीरा फक्कड़पन में क्यो खुश था..
सूरदास बिन नैनो के क्यो मस्त था..
मीरा ने क्यो साधुवाद अपनाया..
ग़ालिब फकीरी में भी क्यो व्यस्त था..

मैं तो इनकी बगिया की,
एक अदना सी नाज़ुक कोपल हूँ,
शब्दों को गढ़ने की कोशिश करती,
चंचल शिशु सी किलकारी हूँ।

भले न करो स्वीकार मुझे,
पर थोड़ा सा प्यार तो दो,
कवियों की इस बगियाँ में
क्षण भर का विश्राम तो दो।

Thursday, May 7, 2009

प्रीत की रीत


आँखों में चमक ,
बात - बात में दमक,
यू हीं लचक - लचक,
गोरी चाल चलने लगे।

आईने के संग,
देख अपने ही रंग,
केशो की भंवर,
गोरी आप गढ़ने लगे।

करके श्रृंगार,
होके सखियों के साथ,
गोरी बात - बेबात,
यू ही आहें भरने लगे।

सखी के सवाल,
उसे करे परेशान,
गोरी आँख नीची कर,
गाल लाल करने लगे।

खिली-खिली धूप,
जब सुहानी लगने लगे,
काली अँधेरी राते,
जब प्यारी लगने लगे।



इत - उत तक,
गोरी जब मुस्कुराने लगे,
बेख्याली में गोरी गुनगुनाने लगे,
बात - बेबात बस यूही शर्माने लगे,

कोई और नहीं रंग,
ये तो प्यार के हैं ढंग,
गोरी किसी गोरे नाल,
प्यार करने लगी ।

प्यार का ये रंग,
ये तो बड़ा ही दबंग,
छोड़ लोक - लाज,
गोरी आगे बढ़ने लगी ।





प्रीत की ये रीत ,
कोई नई नहीं चीज ,
ये तो कान्हा का है गीत ,
राधा बनी यही मीत।

मीरा का है संगीत,
सीता ने गया था गीत,
कोई गलत नहीं चीज,
बस निभाई हैं ये रीत ।

बस निभाई हैं ये रीत,
बस निभाई हैं ये रीत। ।

Tuesday, May 5, 2009

एक परिंदे की कहानी



मेरे घर के आगन में, परिंदे रोज आते हैं,
ची-ची करते, फुदकते, दाने चुगते ,
कटोरे का पानी पीते, और फिर उड़ जाते,

वो कलरव, वो अठखेलिया, वो मनोरम द्रश्य,
दिल को भाते .......
और मेरे तनाव उनकी परवाज़ में उड़ जाते ,

एक दिन, एक चिया ज्यादा हिम्मत दिखा गई,
आँगन से उड़, कमरे तक आ गई,
पंखे से टकरा कर, पंख कटा गई,






और मेरी आह! निकल गई ,
दौड़ कर उसके नन्हे मखमली बदन को उठाया मैंने ,
जीवन रक्षा के लिए पानी मंगाया मैंने






इससे पहले कि पानी पिलाने की कोशिश करती,
जिंदगी रूठ गई, मेरे हाथ से पानी की कटोरी छूट गई,
अब आँगन की चिडियों का कलरव भेद रहा था दिल को ..


इन्ही हाथो ने कब्र खोदी थी उसके लिए
फिर उसको पत्ते पर लिटा कर ,
उसके जनाजे को फूलों से सजाया था मैंने,







एक नाकाम कोशिश कि थी जीवन देने कि उसको,
आँखों की नमी, बूँद बनकर गिर पड़ी, उस नन्हे मृत शरीर पर
और वो सदा के लिए दफ़न हो गई ,

उसको दफ़न कर पूरे दिन बिस्तर पर पड़ी रही ,
मै कितनी बेबस , कितनी लाचार,
मौत को जीत न सकी .........

आज उसकी कब्र पर एक दरख्त हैं,
उस दरख्त पर फूल खिलते हैं,
परिंदे आकर कलरव करते हैं ,




भवरे, तितलिया, मंडरा लेते हैं उन फूलों पर
शबनम पत्तियों की प्यास बुझा देती हैं
खुश हूँ मै बहुत .....

जिंदगी फिर मुस्कुरा रही हैं.................

Saturday, May 2, 2009

एक मुलाकात डॉ. कुमार विश्वास के साथ



कहते हैं कवि बनने की पहली शर्त इंसान होना हैं। कविता कवि के उन
क्षणों के उपलब्धि होती हैं, जब वो अपने आप में नही होता। इसीलिए कवि के चेतनास्तर तक उठे बिना समझी भी नही जा सकती।



आज जिनके बारे में बात करने जा रही हूँ, उन्होंने देश में ही नही वरन विदेश में भी अपनी पहचान बनाई हैं। लोग सिर्फ़ उनको सुनते ही नही बल्कि उनका अनुसरण भी करते हैं। जी हाँ वो हैं हम सबके प्यारे डॉ० कुमार विश्वास :-)




डॉ0 कुमार विश्वास का नाम किसी परिचय का मोहताज़ नहीं हैं। युवा दिलों कि धड़कन कहा जाये तो अतिशयोक्ति न होगी, वो बहुत बड़े फनकार हैं, जब अपनी कविताओ का पाठ करते हैं तो सीधे श्रोताओ कि नब्ज को टटोलते हुऐ रूह को छु लेते हैं। उनकी सीधी , सरल भाषा कविता का मार्मिक व्याख्यान ही नहीं करती बल्कि गुदगुदाती टिप्पणियां लोगों के चेहरों पर मुस्कुराहट खींच देती हैं। शायद यही वजह है कि जहाँ एक तरफ आज का युवा कारपोरेट वर्ल्ड के उतार - चढाव से जूझ रहा हैं, ......... पाश्चात्य संस्कृति में रचा बसा, फिर भी हिंदी कविता को जीता हैं, सुनता हैं, सराहता हैं। आखिर कुछ तो बात हैं आज कि पीढी में .............. स्पष्ट हैं प्यार और भावना की भाषा कौन नहीं समझता। शायद यही वजह है कि डॉ0 विश्वास के जुदा अंदाज ने नई पीढी को अपनी तरफ आकर्षित किया हैं ।

कभी डॉ. विश्वास से मेरी मुलाकात होगी और उनसे मिलकर मेरे लेखन का शौक फिर से कुलांचे मारने लगेगा ..... ऐसा भी नहीं सोचा था कभी..

पर यही तो जिंदगी हैं ....हमेशा वो देती हैं जिसकी आपको उम्मीद न हो....... मेरी और उनकी मुलाकात का वाकया हैं बहुत दिलचस्प .....मेरे लिए तो वो एक अविस्मरणीय क्षण हैं .... सोचती हूँ क्यों न इस किस्से से आपको रूबरू करवाया जाये।

दरअसल डॉ0 कुमार विश्वास नाम के कोई कवि भी हैं, इसका ज्ञान करीब ढाई साल पहले ही हुआ। एक दिन परिवार के साथ टी० वी० पर कवि सम्मलेन देखा, उसमे डॉ० विश्वास को उनकी प्रसिद्ध रचना " कोई दीवाना कहता हैं ' सुनाते हुए देखा ..........कविता ने तो स्तब्ध करके रख दिया हैं ... याद हैं पापा कि वो टिपण्णी " ये शख्स बहुत आगे जायेगा,बिलकुल गोपाल दास नीरज जैसे हैं इसके तेवर " बस प्रोग्राम ख़त्म, बात ख़त्मकविता के कुछ अंश दीमाग में फीड हो गए थे तो गुनगुना लेती थी कभी कभी।

अक्सर मेरे सहकर्मी पूछते ..... ये क्या गुनगुनाती रहती हो ? मैं बस मुस्कुरा देती। एक दिन बताया अपनी सहेली की ...... उसने मजाक- मजाक में नेट सर्फिंग शुरू की और मुझे डॉ० विश्वास का -मेल आई ० डी० सर्च करके दे दिया


बात शायद जुलाई या अगस्त २००८ कि हैं जब मेरी एक सहेली ने उनका ई -मेल आई ० डी ० दिया था मुझे। मैंने भी झट से इनविटेशन भेजा और उधर से स्वीकृति भी मिल गई ........मैंने अपना परिचय दिया .......पर उन्होंने ज्यादा बात ही नहीं की। मुझे तो यकीन ही नहीं हो रहा था कि उनके जैसा मसरूफ शख्स इन्टरनेट पर यूजर हो सकता हैं। मैंने उनसे काफी बात करने कि कोशिश की, पर उधर से किसी भी बात का ठीक जवाब ही नहीं आया, मैंने कहा कवि हैं तो दो - चार पंक्तिया अपनी कविता की ही लिख दे ताकि यकीन हो जाये कि आप वही हैं जिन्हें हम समझ रहे हैंI उन्होंने मेरे इस निवेदन को भी ठुकरा दिया ..... मैंने भी सोचा की कवि होकर कविता से परहेज .... यकीनन ये शख्स डॉ० विश्वास नहीं हो सकता .......ये ईमेल आई० डी० नकली हैं और कोई डॉ० साहेब का नाम इस्तेमाल करके लोगों को बेवकूफ बना रहा हैं। बस मैंने दो - चार उलटी - सीधी बातें लिख कर भेज दी । उधर से जवाब आया अगर नहीं यकीन हैं तो ब्लाक कर दीजिए । मैंने भी बिना देर लगाये तुंरत ब्लाक कर दिया.... बहुत गुस्सा आया खुद पर उस दिन कि कैसे कर बैठी इतनी बड़ी बेवकूफी।




जिंदगी अपनी रफ़्तार से चल रही थी । इस बात तो करीब चार माह बीत चुके थे । मेरे दिमाग से ये वाकया मिट चुका था ..... एक दिन फुरसत के क्षण, मैं एक सोशल वेबसाइट विजिट कर रही थी .............अचानक नज़र डॉ कुमार विश्वास नाम के प्रोफाइल पर नज़र गई, तुंरत विजिट किया प्रोफाइल ........ आश्चर्य हुआ वो तो सचमुच में कवि डॉ0 कुमार विश्वास थे ....मैंने झट से ब्लाक आई० डी० को ओपन किया । दोपहर में प्रतिक्रिया भी आई उधर से .... मैंने याद दिलाया उनको अपने बारे में और पूर्व व्यवहार के लिए माफ़ी में मांगी।


एक बार पता चला कि किसी प्रोग्राम के सिलसिले में उन्हें लखनऊ आना हैं। सोचा आ रहे हैं तो क्यों न मुलाकात की जाये , बहुत खुश थी मैं, पर थोडा सा डर भी था अंदर........ इस तरह किसी से मिली जो नहीं थी कभी ........ मैंने अपनी इस दुविधा को ऋचा (मेरी सहेली ) से बताया। हमने डिसाइड किया कि हम दोनों साथ जायेगे उनसे मिलने।


अगले दिन सुबह पता चला कि उनका प्रोग्राम तो रात का था और दिन में बजे शताब्दी से वापस दिल्ली जा रहे हैं। हम ऑफिस में थे तो छुट्टी के लिए कोई सॉलिड वजह होनी चाहिए। एच० आर० से मिलकर किसी तरह छुट्टी मिली। अब कवायत शुरू हुई कि कवि से मिलने जा रहे हैं, तो खाली हाथ तो नहीं जाना चाहिए। हम दोनों ने डिसाइड किया कि माँ सरस्वती के उपासक को क्यों वीणावादिनी ही भेंट की जाये। बस झटपट गिफ्ट शॉप से माँ सरस्वती की प्रतिमा ली और चल पड़े स्टेशन कि ओर

स्टेशन पर पहुचे तो शताब्दी प्लेटफोर्म पर खड़ी थी, ऋचा ने प्लेटफोर्म टिकेट लिया और फिर हमने रुख किया शताब्दी की ओर। हमने पता किया था कि एक्जीक्यूटिव क्लास में हैं उनका रिज़र्वेशन। निसंदेह इंटेलिजेंट तो मैं हूँ ही.............एक्जीक्यूटिव क्लास इंजन के पास होता हैं और हम चले गए विपरीत दिशा में. ...... बाई गौड.... पूरे दो चक्कर लगाये थे ट्रेन के ........ऊपर से ट्रेन बार - बार सीटी बजाकर ये बता रही थी कि स्टेशन से रुखसती का समय रहा हैं ...धड़कने बढ़ रही थी हमारी ...... कितना प्रयत्न किया था हम दोनों ने .... वो ऑफिस में बहाना बनाना..... .कम टाइम में गिफ्ट की शौपिंग ...... चिलचिलाती धूप में स्कूटी चलाकर वो स्टेशन पर पहुचना ......... ट्रेन की परिक्रमा और फिर मुलाकात हो पाना ............. आखिरकार मिल ही गए कोच के बाहर खड़े हुए थे। थके- हारे हम दोनों बेचारे पहुँच गए.... डॉ0 विश्वास के सामने ......... बहुत खुश थे हम दोनोंसोचा तो था .....कि पूरा इंटरव्यू लेंगे ....कई सवाल थे जहन में पूछने के लिए .....पर शायद उनसे मिलने कि ख़ुशी इतनी ज्यादा थी कि दिमाग से सवाल छूमंतर हो गए। वक़्त भी कम था हमारे पास ........हमने जल्दी से गिफ्ट जो जल्दबाजी में ख़रीदा था, उनके हाथ में दे दिया, अपने सामने ही खोलने को बोला ..... माँ सरस्वती कि प्रतिमा को देख कर वो भी बहुत खुश थे बोले कि मैं इसे स्टडी में रखूंगा।

उनके लिए ये घटना कोई बड़ी बात नहीं हैं। क्योकि उनके पास हमारे जैसे हजारों की भीड़ हैं। रोजाना कही न कही उनका शो रहता हैं .... और रोज़ कुछ न कुछ प्रशंसको का नाम उनके साथ जुड़ ही जाता हैं। कुछ पलों की मुलाकात से किसी के बारे में कुछ नहीं बताया जा सकता पर चूँकि आज के दौर के वो एक प्रसिद्ध कवि हैं और युवाओ में काफी लोकप्रिय भी। जब कभी उनका कोई विडियो देखती तो सोचा करती थी ..... काश ! एक बार मुलाकात जो जाए तो क्या बात हो

एक बात जिसने काफी प्रभावित किया वो ये की हमें उनसे मिलकर ऐसा लगा ही नहीं कि मैं " डॉ० कुमार विश्वास से मिल रही हूँ। बल्कि ऐसा लगा कि अपने किसी रिश्तेदार को स्टेशन पर सी- ऑफ करने आये हैं। डॉ कुमार विश्वास हमसे मिलकर प्रसन्न हुए या नही , ये तो नही जानती पर . . हमारे लिए तो कुछ ऐसा था जैसे " चाँद कि जिद करने वाले बच्चे को सच-मुच चंदा मामा ही हाथ लग गए हो"

डॉ साहेब से मुलाकात का ये अच्छा अनुभव रहा ...... जिंदगी में कुछ न कुछ बदलता रहना चाहिए वरना जीवन कि गति ही रुक जाती हैं ........रुकी हुई जिंदगी सुस्त और नीरस हो जाती हैं ........ अब मुझे इंतज़ार हैं .... जिंदगी कि एक नई खोज का ....एक और रुचिकर अनुभव का ............शायद अगली मुलाकात फिर किसी ख़ास शख्सियत से हो ......

इस छोटी से मुलाकात ने मेरे जीवन को नई दिशा दी. मेरी कलम जिसने शायद चलना ही छोड़ दिया था ... उसे गतिमान बना दिया डॉ० विश्वास ने। ऐसे प्रेरक व्यक्तित्व के प्रति ह्रदय में आदर के भाव क्यों न हो...........


विश्वास सर और उनकी कविताओं से प्रभावित होकर.......हमने भी शब्दों से खेलने की कोशिश की! इसलिए मेरी ये रचना उन्ही को समर्पित हैं .........

माँ भारती के अनन्य उपासक,
भगवती सरस्वती को काव्यांजलि अर्पित करने वाले,
आपके व्यक्तित्व से तो जग हिला हैं,
कवियों में होता न कोई छोटा, न बड़ा हैं.


नहीं चाहती कि तारीफ में कुछ शब्द कहूं मैं,
क्यों आदि युग के कवियों कि राह चलू मैं ,
आप कोई राजा या नेता नहीं हैं,
सत्ता के शिखर पर आप बैठे नहीं हैं


मुझे आपसे कोई भौतिक लालच नहीं हैं,
लेन-देन का अपना कोई रिश्ता नहीं हैं,
हम दोनों अनजान एक - दूजे से हैं,
हाल ही में जाना कि आप पारस से हैं


बस एक बार आपकी एक कविता यू ही हाथ लग गई,
हाथ क्या लगी, वो तो जैसे रोम - रोम में बस गयी,
तभी एक नए रिश्ते का सर्जन हुआ था
कवि और पाठक का नामकरण हुआ था


आप लिखते गए मैं पढ़ती गई, सुनती गई,
भूरि- भूरि प्रशंसा करती गई ,
नहीं चाहा प्रशंसा आप पर जाहिर करू मैं,
क्यों बेवजह कविता लिखूं - तारीफ करुँ मैं,


पर आपकी नज्मों और अंदाज़ - ए - बयां ने बजबूर किया हैं,
वरना हमने भी कभी वक़्त जाया नहीं किया हैं,
क्यों लिखा और सुनाया ऐसा कि रूह तक मचल गयी,
कलम थिरक गई , और मेरी लेखनी कविता में ढल गई ।


विश्वास करो मेरा , इसमें कुसूर मेरा नहीं हैं,
ये कलम निर्भय , स्वच्छंद तहरीर पर अड़ी हैं,
कुछ पलों की मुलाकात पर इसने दास्ताँ गढ़ी हैं ,
और मैं मजबूर बहुत बस इसके हुक्म पर चली हूँ ।



कुछ कम - ज्यादा होगा, तो दोष मेरा न होगा ,
मान - सम्मान का इल्जाम मुझ पर न होगा,
मैं तो बस साधन मात्र हूँ,
इसकी स्थिरता को गतिमान बनाने का पुण्य आप पर होगा।



आपके लेखन को किसी कि नज़र न लगे ,
आपको हिंदी साहित्य में नया शिखर मिले,
अंग्रजी के जाल में भटके हुओ को हिंदी साहित्य से वापस लाना,
ऐसा चुम्बकत्व तो किसी नारी के सौन्दर्य में न होगा।



कही मेरी इन बातों से गौरान्वित तो नहीं महसूस करोगे,
डरती हूँ, कही गुरूर कि सीढ़ी तो नहीं चढोगे,
गर ऐसे ही सादगी, सहजता, सहृदयता से चलते रहोगे,
देते हैं दुआ आज आपको, तूफानों को चीर कर आगे बढोगे।



इस लेख पर आप सभी की प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेग।

Friday, May 1, 2009

हौसला




अपने रूठे हैं तो क्या,
साथ छुटा है तो क्या,
तिनका ही तो टूटा हैं न नीड़ का,
बस एक पुल टुटा हैं उम्मीद का।

राहें बेगानी हुई हैं,
मन में परेशानी हुई हैं,
कोई पुराना ज़ख्म ताज़ा हो गया,
जिंदगी की राह में...
फिर उनसे वास्ता हो गया।

खुद से मत खफा हो जरा भी ,
बताती हूँ रास्ता अभी .......

हौसला कहा पराया,
झांको खुद में,
वो तुम्हारा साया हैं,
तलाशो खुद में,
अंदर ही छुपा बैठा हैं कहीं,


पहले खुद से खुद की पहचान कराओ ,
जो अन्तेर्मन में सोया हैं उसको जगाओ,

वो और कुछ नहीं, हौसला ही तो है,
निर्भीक हो , प्रण लो, नई उर्जा
नया संचार भरो,

बस एक बार जब पूरी ताकत से उठ जाओगे
अब पहले वाली गलती नहीं दोहराओगे

अनुभव के बल से नई तरतीब लगाओगे,
तुम खुद तो क्या यार !
ज़माने को नई दिशा दिखलाओगे।

देखो न ! कैसे समझा दिया मैंने :-)
उलझी बातो को पल में सुलझा दिया मैंने

तारीफ कोई नहीं करता, तो खुद ही कर लेती हूँ,
कभी- कभी तो बेबात खुश हो लेती हूँ.

बस ऐसे ही खुद को बहला लेती हूँ,
यही तो राज़ की बात हैं
तभी तो हर पल मुस्करा लेती हूँ.